(हास्य कवि माणिक वर्मा के दोहे) ×××××××××××××××× कीचड़ उसके पास था, मेरे पास गुलाल, जो भी जिसके पास था, उसने दिया उछाल। जलीं होलियां हर बरस, फिर भी रहा विषाद, जीवित निकली होलिका, जल-जल मरा प्रहलाद। पानी तक मिलता नहीं, कहां हुस्न और जाम, अब लिक्खें रूबाईयां, मिया उमर खय्याम। होरी जरे गरीब की, लपट न उठने पाए, ज्यों दहेज बिन गूजरी, चुपचुप चलती जाए। वो सहमत और फाग से, वे भी मेरे संग? कभी चढ़ा है रेत पर, इंद्रधनुष का रंग। आज तलक रंगीन है, पिचकारी का घाव, तुमने जाने क्या किया, बड़े कहीं के जाव। उनके घर की देहरी, फागुन क्या फगुनाए, जिनके घर की छांव भी, होली-सी दहकाय। जिन पेड़ों की छांव से, काला पड़े गुलाल, उनकी जड़ में बारवे, अब तो मट्ठा डाल। तू राजा है नाम का, रानी के सब खेत, उनको नखलिस्तान है, तुमको केवल रेत। (हास्य कवि माणिक वर्मा के दोहे)
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